(विशेष संपादकीय ) प्रजातंत्र : सरकार जनता की हो, जनता द्वारा चलाई जाती हो और जनता के लिए चलाई जाती हो

देखा जाये तो संसद में अब जनमत को तरजीह नही दी जाती है l जब भी लोगों से जुड़ी समस्याओं पर संसद में बातचीत होती है, तब सीटें ख़ाली होती हैं l संसद में कौन सा और किस मुद्दे पर बहस करनी है कौन संसद में क्या बोलेगा और किस मुद्दे को कौन उठाएगा……

(विशेष संपादकीय )  प्रजातंत्र : सरकार जनता की हो, जनता द्वारा चलाई जाती हो और जनता के लिए चलाई जाती हो
विशेष संपादकीय

देश में राजनीतिक दलों का वर्चस्व इतना मज़बूत है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से पार्टी तंत्र में तब्दील हो चुकी है l आज की स्थिती को देखते हुए हमें लगता है कि हर राजनीतिक दल अपनी मूल विचारधारा को त्याग कर येन केन प्रकारेण सत्ता पर क़ाबिज़ होना चाहता है.

दरअसल, भारत का प्रजातंत्र दूषित हो चुका है और यही प्रजातंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है l अब तो बस चुनावी जलजले महज़ खानापूर्ति बनकर रह गए हैं l सच तो ये है कि देश की सारी पार्टियाँ इस अहम् के चक्कर में गर्त में जा रहीं हैं l सच तो ये है देश में प्रजातंत्र लाने के लिए देश में ऐसी व्यवस्था हो, जिसमें सरकार जनता की हो, जनता द्वारा चलाई जाती हो और जनता के लिए चलाई जाती हो, ये प्रजातंत्र कहलाता हैं.

वैसे तो प्रजातंत्र के और भी कई मापदंड हैं लेकिन जब अपने देश का संविधान बन रहा था, तब हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र की उस व्याख्या को माना था l जो कि सरकार के इसी स्वरूप को असली आजादी माना गया है l प्रजातंत्र के इस स्वरूप के साथ कोई भी समझौता करना देश की आजादी के साथ समझौता करने के सामान है l इन हालातों में ये सवाल उभरकर आता है कि क्या वर्तमान में देश का प्रजातंत्र इस मापदंड पर खरा उतरेगा.

ये सच है कि पिछले 75 सालों में भारत के प्रजातंत्र का न केवल पतन हुआ है, बल्कि इस पर ग्रहण भी लग गया है l सत्य के तहत सरकार के एजेंडे से अब प्रजा ही गायब हो गई है भारत का प्रजातंत्र अब पार्टी तंत्र में बदल चुका है l देश की सरकारे पार्टी के लिए हैं, पार्टी के द्वारा हैं और पार्टी की हैं l प्रजातंत्र सामंती युग से जुड़ा है, वह राजतंत्र का विरोधी है और राजा को छोड़कर बाकी पूरे समाज का द्योतक। जनतंत्र का जन भी बहुत पुराना है, लेकिन आधुनिक युग में वह शासित, शोषित व दमित जनता का सूचक है। जो शासन व्यवस्था जनता की हो, जनता के लिए हो और जनता द्वारा संचालित हो, वही जनतंत्र है। इसके तीन जाने-माने लक्षण हैं – स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा.

देखा जाये तो संसद में अब जनमत को तरजीह नही दी जाती है l जब भी लोगों से जुड़ी समस्याओं पर संसद में बातचीत होती है, तब सीटें ख़ाली होती हैं l संसद में कौन सा और किस मुद्दे पर बहस करनी है कौन संसद में क्या बोलेगा और किस मुद्दे को कौन उठाएगा ये सब पार्टी तय करती है और जब कभी वोटिंग होती है तो सांसदों को अपने मन से वोटिंग करने की भी आजादी नही होती है पार्टी के मुताबिक अगर वे वोट न करे तो संसद की सदस्यता छीन ली जाती है कहने के मतलब ये है कि सांसद और विधायक होने के बावजूद ये पार्टी के बंधुआ मजदूर हो जाते हैं l क्या यही लोकतंत्र का स्वरूप है l क्या लोग इसलिए उन्हें चुनते हैं कि ये संसद और विधानसभाओं में उनकी बात न रखकर पार्टी के एजेंट बन जाएँ.

न तो यह सही मायने में प्रजातंत्र है और न ही देश के राजनीतिक दलों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास है l प्रजातंत्र सिर्फ संस्थागत व्यवस्था नहीं है बल्कि यह तो एक मूल्य है, पद्धति है, एक जीवनशैली है l जो भी व्यक्ति या संगठन  प्रजातांत्रिक मूल्यों से संचालित नहीं होता तो इसका सीधा मतलब ये हुआ कि वो व्यक्ति इन मूल्यों पर विश्वास नही करता जिससे चुनाव मूल्यों का उलंघन होता है.

देश के राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है वास्तव में आज के इस माहौल में चुनाव आयोग के पास इन पार्टियों को नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं है l देश के राजनीतिक दल लोकतान्त्रिक आधार पर न तो संगठित हैं और न ही किसी राजनैतिक दल में फ्री एंड फेयर की छमता l अगर सही मायने में देश का सुधार करना है तो सभी पार्टियों को हिन्दू मुसलमान वाली राजनीति छोड़कर देश के भले लिए कुछ करके देश की जनता को महसूस कराइए कि जो पार्टी सत्ता में आएगी वो इन समस्याओं को दूर करेगी जो देश के हित में हैं l जैसे .... सीधे जनता से जुड़ कर कानून बनाने के लिये जनता की राय जांनेगे l सत्ता नेताओ के हाथ से सीधे जनता को स्थानांतरित करेंगे यानी उनके मोहल्ले में सड़क बनेगी या लाइट लगेगी ये फैसला सीधे जनता ले सके l घिसी पिटी हिन्दू मुसलमान वाली राजनीति बंद कर दीजिये मुसलमानों की राजनीति वो करते हैं, आप हिदुत्व कि राजनीति करते हैं अगर ऐसा ही रहा तो आप होंगे न वो l देश की जनता को रोजगार और विकास कि जरुरत है l धर्म कोई खराब नहीं होता बल्कि धर्म के नाम पर रोटियां सेंकने वाले खराब होते हैं.

आज देश को भ्रष्टाचार और मंहगाई से निजात पाने की आवश्यकता है आश्चर्य की बात तो यह है कि ज़मीन से जु़डे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होती है और वैसे लोग, जिनके पास पैसा और बाहुबल होता है, उन्हें पार्टी में सम्मान दिया जाता है और राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वालों ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना लिया है और आज इसी वजह से वे लोगों की नजरों में गिर चुके हैं l

और अब अंत में आपसे मैं ये कहना चाहूंगी कि मेरा मानना है कि हाल के दिनों में भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमने आर्थिक उदारीकरण को तो लागू करने में तत्परता दिखाई लेकिन उसी से मिलते-जुलते प्रशासनिक उदारीकरण की कभी बात ही नहीं की l जैसे कि किसी मंत्री के एक फैसले से या किसी सचिव के एक हस्ताक्षर से अगर किसी कंपनी को या किसी एनजीओ को हजारों करोड़ रुपये का फायदा हो जाए तो समझ लीजिए कि हम ऐसे सिस्टम में काम कर रहे हैं जहां घूसखोरी न होना अचरज की बात है। समाज का एक हिस्सा बदल जाए और दूसरे हिस्से पुराने घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते रहें तो इच्छाओं और तनाव तो बढ़ेगा ही l भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले उसी तनाव और इच्छाओं  का परिणाम होते हैं.

सरकार को चाहिए कि जांच करने वाली एजेंसियों को चुस्त-दुरुस्त करें l न्यायपालिका को इतना सक्षम बनाइए कि आम-जन को न्याय मिलने में देरी नहीं हो पाए और कानून तोड़ने वालों को कानून से डरना सिखाइए l लेकिन मैं ये जानती हूँ कि इस सबसे करप्शन में कमीं नहीं आएगी l इस सबसे करप्ट लोगों को तो सजा मिल जाएगी लेकिन करप्शन नहीं रुकेगा l करप्शन रोकने के लिए आर्थिक उदारीकरण से सबक लेते हुए प्रशासनिक उदारीकरण का ऐसा मॉडल बनाइए, जहां कोई एक आदमी चाहकर भी मनमानी न कर पाए........

सुनीता दोहरे...
प्रबन्ध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़